धर्म एवं दर्शन >> सिद्धिदाता गणेश सिद्धिदाता गणेशशान्ति लाल नागर
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सिद्धिदाता गणेश के प्रादुर्भाव एवं उनकी मान्यता सम्बन्धित विचारधाराओं का वर्णन...
गजाननं भूतगणादि सेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विध्नेश्वरपादपंकजम्।।
लम्बोदरं परम सुन्दर एकदन्तं पीताम्बरं त्रिनयनं परमंपवित्रम्।
उद्यद्धिवाकर निभोज्ज्वल कान्ति कान्तं विध्नेश्वरं सकल विध्नहरं नमामि।।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विध्नेश्वरपादपंकजम्।।
लम्बोदरं परम सुन्दर एकदन्तं पीताम्बरं त्रिनयनं परमंपवित्रम्।
उद्यद्धिवाकर निभोज्ज्वल कान्ति कान्तं विध्नेश्वरं सकल विध्नहरं नमामि।।
(जिसकी सेवा में सभी भूत गण तत्पर रहते हैं, जो कैथ तथा जामुन के फलों को
बड़े चाव से खाते हैं, जो शोक संताप का विनाश करने वाले हैं, उन गिरिजा
नन्दन गणेश को मैं मस्तक निवाता हूँ। उन विध्नेश्वर के चरण कमलों में मैं
प्रणाम करता हूँ। वे देव जो लम्बोदर होते हुए भी अत्यन्त सुन्दर हैं,
जिनके एक ही दान्त है। जो पीताम्बर धारी तथा तीन नेत्रों वाले हैं, जो परम
पवित्र हैं, जिनकी कान्ति उदयकालीन सूर्य के समान उज्ज्वल दिखाई देती है,
उन सर्व विघ्नहारी विघ्नेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।)
श्रृष्टि में मानव के प्रादुर्भाव के साथ ही अनेक प्रकार की सामाजिक तथा धार्मिक गतिविधियाँ आरम्भ हो गईं। कालान्तर में अनेक देवी-देवताओं का पूजन भी समाज में फैलने लगा। मानव को वास्तव में एक सामाजिक प्राणी कहा गया है तथा जब से उसने जन समूह में निवास को अपनाया अथवा वह सभ्य समाज में रहने लगा तो इसे कई प्रकार की सामाजिक आर्थिक, कृषि सम्बन्धी तथा अन्य अनेकानेक समस्याओं से झूझना पड़ा। इनमें से कुछ एक समस्याओं को तो उसने आसानी से हल कर लिया परन्तु कुछ समस्याएँ ऐसी थीं जो उसके सामर्थ्य से बाहर थीं तथा वह उनपर बहुत कठिनाई से पार पा सका। फिर भी कुछ समस्याएँ ऐसी थीं जिन को पार पाने के लिए उसे अदृश्य शक्तियों का सामना करना पड़ा। इन अदृश्य शक्तियों से पार पाने के लिए ही मनुष्य को प्राकृतिक शक्तियों पर आस्था रखने को बाध्य होना पड़ा। इन विचारों का आभास हमें स्पष्टः वैदिक साहित्य में उपलब्ध है। इसी विचारधारा ने अनेक धर्मों तथा मत मवान्तरों को जन्म दिया। कालान्तर में अनेक देवी-देवताओं की भी कल्पना की गई। अतः प्रत्येक धर्म, समाज एवं मत-मतान्तरों में अलग-अलग रूप से देवी-देवताओं की अर्चना, वन्दना तथा पूजा आरम्भ हो गई।
श्रृष्टि उत्पत्ति के साथ ही पृथ्वी पर अनेक धर्मों तथा मतों का प्रचलन हो गया। प्रत्येक धर्म के अपने भिन्न-भिन्न देवी-देवता थे था उनकी पूजन शैलियाँ भी भिन्न थी। परन्तु उद्देश्य सभी का मानव को उसकी सांसरिक पीड़ा से परित्राण तथा धरती पर सुखमय जीवन बिताना ही था।
अनादि काल से ही भारतवर्ष एक धर्मप्रधान देश माना जाता रहा है। जिसमें अनेक धर्मों को समय-समय पर मान्यता मिली है। अतः यह पावन धरती अनेक धर्मों का जन्मस्थल मानी जाती रही है जिनके अपने-अपने देवी-देवता थे जिनकी वे पूजा किया करते थे। इन देवी-देवताओं में कुछ ऐसे भी थे जो अनेक धर्मों–जैसे हिन्दू, जैन तथा बौद्ध धर्मों में समान रूप से पूज जाते थे। गणेश एक ऐसे देवता रहे हैं जिनकी पूजा-अर्चना का इन सभी धर्मों में प्रचलन रहा है।
कुछ विद्वानों ने गणेश अथवा गणपति के वैदिक देवता के रूप में मान्यता नहीं दी है परन्तु कुछ वेदज्ञ उन्हें वैदिक देवता ब्रह्मणस्पिति का ही प्रारूप मानते है। ऋग्वेद में गणपति शब्द अनेक बार वर्णित है। ऋग्वेद तैत्तिरीय तथा वाजस्नेई संहिताओं में भी गणपति शब्द भगवान शिव के गणों के रूप में ही प्रयोग में लाया गया है। ब्राह्मण तथा आरणयक ग्रन्थों में भी गणपति शब्द की व्याख्या अनेक रूपों में मिलती है। अन्य धर्म शास्त्रों, गृह्यसूत्रों तथा श्रौतसूत्रों में विनायक, हस्तिमुख, वक्रतुण्ड एकदन्त एवं लम्बोदर आदि नामों का प्रयोग उपलब्ध है परन्तु यह प्रयोग गणेश जी के लिए न होकर ऐसी शक्तियों के लिए भी प्रयोग हुआ है, जो संसार में उपद्रव मचाती हैं।
सर्व प्रथम गणेश जी को विघ्नहर्ता के रूप में वाजस्नेई स्मृति (1.271-294) में देखा जा सकता है। इस संदर्भ में ब्रह्मा तथा भगवान रुद्र ने विनायक को अपने गणों का नेता (गणपति) घोषित किया है तथा उनके ऊपर विघ्नों के विनाश तथा सफलता की प्राप्ति का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। परन्तु गृह्य सूत्र तथा श्रौत सूत्रों के पश्चात् के साहित्य ने गणेश जी की छवि बनाने में काफी महत्वपूर्ण योग दान दिया है। जिससे वे अत्यन्त लोक प्रिय हो गए।
गणेश जी को गणपति, गणनायक, विनायक तथा अन्य अनेक नामों से भी पुकारा जाता है। पुराणों में तो इनकी पूजा-अर्चना का महत्व बहुत बढ़ गया, जबकि इनकी अर्चना के बीच तो वैदिक साहित्य में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। महाभारत में गणेश जी का अपना ही महत्त्व है जो कि उनकी पूजा-अर्चना से सर्वथा विपरीत हैं।
ऐसी धारणा है कि महर्षि वेदव्यास जी को महाभारत लेखन के लिए एक लेखक की आवश्यकता थी। उन्होंने गणेश जी से इस बारे में सम्पर्क किया। गणेश जी महाभारत लेखन का कार्य करना मान तो गए परन्तु उन्होंने यह शर्त रखी कि वे अपने लेखन कार्य को छोड़ेंगे नहीं। यदि व्यासजी मन्त्रोच्चारण बन्द कर देंगे तो वे लेखनी हाथ में नहीं लेंगे। उनका तात्पर्य यह था कि व्यास जी का श्लोक वाचन धारा प्रवाह होना चाहिए तथा उसमें यदि अवरोध हुआ तो गणेश जी अपनी लेखिनी रख देंगे तथा पुनः नहीं लिखेंगे। यह कोई सामान्य शर्त नहीं थी जिसको कोई भी अन्य व्यक्ति मान नहीं सकता था। क्योंकि किसी भी श्लोक की रचना में कुछ समय तो अवश्य लगता है। परन्तु व्यास जी भी ज्ञानियों में अग्रगण्य थे। अतः उन्होंने भी गणेश जी की शर्त को स्वीकार करते हुए पलट कर अपनी एक शर्त यह रख दी कि गणेश जी जो भी श्लोक लिखेंगे। उसका अर्थ भली भान्ति समझ कर लिखेंगे। यह शर्त गणेश जी ने सहर्ष स्वीकार कर ली। विद्वानों का यह मत है कि व्यास जी गणेश जी को अपने काव्य की प्रतिभा दिखाने के लिए प्रत्येक सौ श्लोकों के पश्चात् एक कूट श्लोक कह देते थे जिसका अर्थ निकालना बहुत ही जटिल कार्य था। जब तक गणेश जी उसका अर्थ समझते तब तक तो व्यास जी अनेक श्लोक तैयार कर लेते। इस प्रकार व्यास जी तथा गणेश जी ने मिलकर एक ऐसे ग्रन्थ (जिसकी साभ्यता विश्वभर में नहीं है) की रचना की जिसमें एक लाख श्लोक हैं।
ऊपर से संदर्भ से स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत के समय तक गणेश जी की अग्र पूजा आरम्भ नहीं हुई प्रतीत होती है। परन्तु पुराणों के समय में गणपति जी काफी लोकप्रिय हो चुके थे। उनकी मान्यता कालान्तर में बराबर बढ़ती ही गई तथा वे पंचायतन पूजा पद्धति में भी पूजित होने लगे। उनका विघ्नहर्ता तथा सिद्धिदाता रूप उनको भारत के जन-मानस तथा घर-घर में ले गया। शायद ही भारत में कोई ऐसा समृद्ध परिवार होगा जिसके घर में गणेश प्रतिमा किसी न किसी रूप में विराजमान नहीं होगी। कालान्तर में गणेश जी की पूजा-अर्चना से सम्बन्धित एक गाणपत्य मत की अलग से स्थापना हुई। इसमें सन्देह नहीं है कि गणपति भारतीय धार्मिक क्षितिज में कुछ देर से ही प्रकट हुए क्योंकि अन्य देवी-देवताओं जैसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा दुर्गा आदि का पूजन तो प्राचीन काल से चला आ रहा है। परन्तु उनके प्रादुर्भाव उनकी मान्यता दिनों दिन बढ़ने ही लगी। फिर भी वे उन देवी-देवताओं की श्रेणी में आते हैं जिनकी मान्यता एवं पूजा-अर्चना कभी भी हास को प्राप्त नहीं हुई तथा अभी भी जन-मानस श्रद्धा से उनकी पूजा-अर्चना करता है। भारतीय प्राचीन साहित्य के अतिरिक्त इनकी अभिव्यक्ति प्राचीन भारतीय मूर्तिकला आदि में उपलब्ध है जिसका भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।
गणपति की उत्पत्ति के बारे में भारतीय साहित्य में अनेक विचारधाराएँ अथवा मान्यताएँ उपलब्ध हैं। उनमें से कुछ एक का वर्णन नीचे किया जा रहा है।
(1) वैदिक साहित्य के अनुसार गणेश जी को वैदिक देवता1–इन्द्र, रुद्र, मारुत् तथा ब्रह्मणस्पिति का संयुक्त रूप माना जाता है।
(2) कुछ खोज कर्त्ता गणपति को एक प्राकृतिक2पशु मानते हैं जिनके समयानुसार गणपति का रूप दे दिया गया। इस सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि मूषक उसका वाहन कुछ सभ्याताओं में अन्धकार अथवा काल में सूर्यदेव थे जो अन्धकार को दूर करते थे।
(3) कुछ विशेषज्ञों के अनुसार वह पहले एक प्रमुख ग्राम देवता3 थे जो शूद्रों तथा कृषकों द्वारा पूजित थे।
(4) कुछ विद्वानों के अनुसार गणेश को एक अनार्य देवता माना जाता है क्योंकि उनका शरीर बहुत छोटा है जो यक्षों तथा शिवगणों के समान है।
(5) गणपति जी को एक ग्राम देवता भी माना गया है क्योंकि बहुत समय तक उन्हें ग्राम के बाहर किसी वृक्ष के नीचे पूजा जाता था तथा कालान्तर में उनकी एक वैदिक देवता के रूप में प्रतिष्ठा हो गई।
(6) महाभारत4 के अन्तर्गत विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र में भगवान विष्णु को भी गणेश्वर के रूप में स्मरण किया गया है। कई पुराणों में तो भगवान शिव को भी गणेश्वर अथवा गणपति के रूप में पूजा गया है। रामायण5 में भी शिव को गणेश-लोक-शम्भुश्च6 कह कर पुकारा गया है। इसका अर्थ यह है कि भगवान शिव गणों के अधिपति हैं।
(7) ऐसा लगता हैं कि गणेश जी की आकृति में नागों तथा यक्षों आदि के मतों का समन्वय किया गया है। इस सम्बन्ध में निम्न लिखित तथ्य विचारनीय है–
1 यक्ष की आकृति लम्बोदर होती है तथा देह मोटी एवं माँसल होती है।
2 नाग गणपति के आभूषण एवं यज्ञोपवीत के प्रयोग में लाए जाते हैं।
अब देखना यह है कि गणेश जी का नाम गणेश क्यों पड़ा ? इस पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है–‘गण’ का अर्थ है–वर्ग, समूह अथवा समुदाय।‘ईश’ का अर्थ है स्वामी। अतः शिवगणों एवं गण देवों के स्वामी होने के कारण उन्हें गणेश कहा जाता है। आठ वसु, ग्यारह रुद्र तथा बाहर आदित्य गणदेवता कहे गए है।
गण शब्द व्याकरण के अन्तर्गत भी आता है। अनेक शब्द एक गण में आते हैं। व्याकरण में गणपाठ का एक अलग ही अस्तित्व है। वैसे भी भ्वादि, अदादि तथा जुहोत्यादि प्रभृति गण धातु समूह हैं।
गण शब्द की व्याख्या–गण शब्द रुद्र के अनुचरों के लिए भी प्रयोग होता है जिसका साक्ष्य हमें रामायण में प्राप्त है–
श्रृष्टि में मानव के प्रादुर्भाव के साथ ही अनेक प्रकार की सामाजिक तथा धार्मिक गतिविधियाँ आरम्भ हो गईं। कालान्तर में अनेक देवी-देवताओं का पूजन भी समाज में फैलने लगा। मानव को वास्तव में एक सामाजिक प्राणी कहा गया है तथा जब से उसने जन समूह में निवास को अपनाया अथवा वह सभ्य समाज में रहने लगा तो इसे कई प्रकार की सामाजिक आर्थिक, कृषि सम्बन्धी तथा अन्य अनेकानेक समस्याओं से झूझना पड़ा। इनमें से कुछ एक समस्याओं को तो उसने आसानी से हल कर लिया परन्तु कुछ समस्याएँ ऐसी थीं जो उसके सामर्थ्य से बाहर थीं तथा वह उनपर बहुत कठिनाई से पार पा सका। फिर भी कुछ समस्याएँ ऐसी थीं जिन को पार पाने के लिए उसे अदृश्य शक्तियों का सामना करना पड़ा। इन अदृश्य शक्तियों से पार पाने के लिए ही मनुष्य को प्राकृतिक शक्तियों पर आस्था रखने को बाध्य होना पड़ा। इन विचारों का आभास हमें स्पष्टः वैदिक साहित्य में उपलब्ध है। इसी विचारधारा ने अनेक धर्मों तथा मत मवान्तरों को जन्म दिया। कालान्तर में अनेक देवी-देवताओं की भी कल्पना की गई। अतः प्रत्येक धर्म, समाज एवं मत-मतान्तरों में अलग-अलग रूप से देवी-देवताओं की अर्चना, वन्दना तथा पूजा आरम्भ हो गई।
श्रृष्टि उत्पत्ति के साथ ही पृथ्वी पर अनेक धर्मों तथा मतों का प्रचलन हो गया। प्रत्येक धर्म के अपने भिन्न-भिन्न देवी-देवता थे था उनकी पूजन शैलियाँ भी भिन्न थी। परन्तु उद्देश्य सभी का मानव को उसकी सांसरिक पीड़ा से परित्राण तथा धरती पर सुखमय जीवन बिताना ही था।
अनादि काल से ही भारतवर्ष एक धर्मप्रधान देश माना जाता रहा है। जिसमें अनेक धर्मों को समय-समय पर मान्यता मिली है। अतः यह पावन धरती अनेक धर्मों का जन्मस्थल मानी जाती रही है जिनके अपने-अपने देवी-देवता थे जिनकी वे पूजा किया करते थे। इन देवी-देवताओं में कुछ ऐसे भी थे जो अनेक धर्मों–जैसे हिन्दू, जैन तथा बौद्ध धर्मों में समान रूप से पूज जाते थे। गणेश एक ऐसे देवता रहे हैं जिनकी पूजा-अर्चना का इन सभी धर्मों में प्रचलन रहा है।
कुछ विद्वानों ने गणेश अथवा गणपति के वैदिक देवता के रूप में मान्यता नहीं दी है परन्तु कुछ वेदज्ञ उन्हें वैदिक देवता ब्रह्मणस्पिति का ही प्रारूप मानते है। ऋग्वेद में गणपति शब्द अनेक बार वर्णित है। ऋग्वेद तैत्तिरीय तथा वाजस्नेई संहिताओं में भी गणपति शब्द भगवान शिव के गणों के रूप में ही प्रयोग में लाया गया है। ब्राह्मण तथा आरणयक ग्रन्थों में भी गणपति शब्द की व्याख्या अनेक रूपों में मिलती है। अन्य धर्म शास्त्रों, गृह्यसूत्रों तथा श्रौतसूत्रों में विनायक, हस्तिमुख, वक्रतुण्ड एकदन्त एवं लम्बोदर आदि नामों का प्रयोग उपलब्ध है परन्तु यह प्रयोग गणेश जी के लिए न होकर ऐसी शक्तियों के लिए भी प्रयोग हुआ है, जो संसार में उपद्रव मचाती हैं।
सर्व प्रथम गणेश जी को विघ्नहर्ता के रूप में वाजस्नेई स्मृति (1.271-294) में देखा जा सकता है। इस संदर्भ में ब्रह्मा तथा भगवान रुद्र ने विनायक को अपने गणों का नेता (गणपति) घोषित किया है तथा उनके ऊपर विघ्नों के विनाश तथा सफलता की प्राप्ति का उत्तरदायित्व सौंपा गया है। परन्तु गृह्य सूत्र तथा श्रौत सूत्रों के पश्चात् के साहित्य ने गणेश जी की छवि बनाने में काफी महत्वपूर्ण योग दान दिया है। जिससे वे अत्यन्त लोक प्रिय हो गए।
गणेश जी को गणपति, गणनायक, विनायक तथा अन्य अनेक नामों से भी पुकारा जाता है। पुराणों में तो इनकी पूजा-अर्चना का महत्व बहुत बढ़ गया, जबकि इनकी अर्चना के बीच तो वैदिक साहित्य में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। महाभारत में गणेश जी का अपना ही महत्त्व है जो कि उनकी पूजा-अर्चना से सर्वथा विपरीत हैं।
ऐसी धारणा है कि महर्षि वेदव्यास जी को महाभारत लेखन के लिए एक लेखक की आवश्यकता थी। उन्होंने गणेश जी से इस बारे में सम्पर्क किया। गणेश जी महाभारत लेखन का कार्य करना मान तो गए परन्तु उन्होंने यह शर्त रखी कि वे अपने लेखन कार्य को छोड़ेंगे नहीं। यदि व्यासजी मन्त्रोच्चारण बन्द कर देंगे तो वे लेखनी हाथ में नहीं लेंगे। उनका तात्पर्य यह था कि व्यास जी का श्लोक वाचन धारा प्रवाह होना चाहिए तथा उसमें यदि अवरोध हुआ तो गणेश जी अपनी लेखिनी रख देंगे तथा पुनः नहीं लिखेंगे। यह कोई सामान्य शर्त नहीं थी जिसको कोई भी अन्य व्यक्ति मान नहीं सकता था। क्योंकि किसी भी श्लोक की रचना में कुछ समय तो अवश्य लगता है। परन्तु व्यास जी भी ज्ञानियों में अग्रगण्य थे। अतः उन्होंने भी गणेश जी की शर्त को स्वीकार करते हुए पलट कर अपनी एक शर्त यह रख दी कि गणेश जी जो भी श्लोक लिखेंगे। उसका अर्थ भली भान्ति समझ कर लिखेंगे। यह शर्त गणेश जी ने सहर्ष स्वीकार कर ली। विद्वानों का यह मत है कि व्यास जी गणेश जी को अपने काव्य की प्रतिभा दिखाने के लिए प्रत्येक सौ श्लोकों के पश्चात् एक कूट श्लोक कह देते थे जिसका अर्थ निकालना बहुत ही जटिल कार्य था। जब तक गणेश जी उसका अर्थ समझते तब तक तो व्यास जी अनेक श्लोक तैयार कर लेते। इस प्रकार व्यास जी तथा गणेश जी ने मिलकर एक ऐसे ग्रन्थ (जिसकी साभ्यता विश्वभर में नहीं है) की रचना की जिसमें एक लाख श्लोक हैं।
ऊपर से संदर्भ से स्पष्ट हो जाता है कि महाभारत के समय तक गणेश जी की अग्र पूजा आरम्भ नहीं हुई प्रतीत होती है। परन्तु पुराणों के समय में गणपति जी काफी लोकप्रिय हो चुके थे। उनकी मान्यता कालान्तर में बराबर बढ़ती ही गई तथा वे पंचायतन पूजा पद्धति में भी पूजित होने लगे। उनका विघ्नहर्ता तथा सिद्धिदाता रूप उनको भारत के जन-मानस तथा घर-घर में ले गया। शायद ही भारत में कोई ऐसा समृद्ध परिवार होगा जिसके घर में गणेश प्रतिमा किसी न किसी रूप में विराजमान नहीं होगी। कालान्तर में गणेश जी की पूजा-अर्चना से सम्बन्धित एक गाणपत्य मत की अलग से स्थापना हुई। इसमें सन्देह नहीं है कि गणपति भारतीय धार्मिक क्षितिज में कुछ देर से ही प्रकट हुए क्योंकि अन्य देवी-देवताओं जैसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा दुर्गा आदि का पूजन तो प्राचीन काल से चला आ रहा है। परन्तु उनके प्रादुर्भाव उनकी मान्यता दिनों दिन बढ़ने ही लगी। फिर भी वे उन देवी-देवताओं की श्रेणी में आते हैं जिनकी मान्यता एवं पूजा-अर्चना कभी भी हास को प्राप्त नहीं हुई तथा अभी भी जन-मानस श्रद्धा से उनकी पूजा-अर्चना करता है। भारतीय प्राचीन साहित्य के अतिरिक्त इनकी अभिव्यक्ति प्राचीन भारतीय मूर्तिकला आदि में उपलब्ध है जिसका भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।
गणपति की उत्पत्ति के बारे में भारतीय साहित्य में अनेक विचारधाराएँ अथवा मान्यताएँ उपलब्ध हैं। उनमें से कुछ एक का वर्णन नीचे किया जा रहा है।
(1) वैदिक साहित्य के अनुसार गणेश जी को वैदिक देवता1–इन्द्र, रुद्र, मारुत् तथा ब्रह्मणस्पिति का संयुक्त रूप माना जाता है।
(2) कुछ खोज कर्त्ता गणपति को एक प्राकृतिक2पशु मानते हैं जिनके समयानुसार गणपति का रूप दे दिया गया। इस सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि मूषक उसका वाहन कुछ सभ्याताओं में अन्धकार अथवा काल में सूर्यदेव थे जो अन्धकार को दूर करते थे।
(3) कुछ विशेषज्ञों के अनुसार वह पहले एक प्रमुख ग्राम देवता3 थे जो शूद्रों तथा कृषकों द्वारा पूजित थे।
(4) कुछ विद्वानों के अनुसार गणेश को एक अनार्य देवता माना जाता है क्योंकि उनका शरीर बहुत छोटा है जो यक्षों तथा शिवगणों के समान है।
(5) गणपति जी को एक ग्राम देवता भी माना गया है क्योंकि बहुत समय तक उन्हें ग्राम के बाहर किसी वृक्ष के नीचे पूजा जाता था तथा कालान्तर में उनकी एक वैदिक देवता के रूप में प्रतिष्ठा हो गई।
(6) महाभारत4 के अन्तर्गत विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र में भगवान विष्णु को भी गणेश्वर के रूप में स्मरण किया गया है। कई पुराणों में तो भगवान शिव को भी गणेश्वर अथवा गणपति के रूप में पूजा गया है। रामायण5 में भी शिव को गणेश-लोक-शम्भुश्च6 कह कर पुकारा गया है। इसका अर्थ यह है कि भगवान शिव गणों के अधिपति हैं।
(7) ऐसा लगता हैं कि गणेश जी की आकृति में नागों तथा यक्षों आदि के मतों का समन्वय किया गया है। इस सम्बन्ध में निम्न लिखित तथ्य विचारनीय है–
1 यक्ष की आकृति लम्बोदर होती है तथा देह मोटी एवं माँसल होती है।
2 नाग गणपति के आभूषण एवं यज्ञोपवीत के प्रयोग में लाए जाते हैं।
अब देखना यह है कि गणेश जी का नाम गणेश क्यों पड़ा ? इस पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है–‘गण’ का अर्थ है–वर्ग, समूह अथवा समुदाय।‘ईश’ का अर्थ है स्वामी। अतः शिवगणों एवं गण देवों के स्वामी होने के कारण उन्हें गणेश कहा जाता है। आठ वसु, ग्यारह रुद्र तथा बाहर आदित्य गणदेवता कहे गए है।
गण शब्द व्याकरण के अन्तर्गत भी आता है। अनेक शब्द एक गण में आते हैं। व्याकरण में गणपाठ का एक अलग ही अस्तित्व है। वैसे भी भ्वादि, अदादि तथा जुहोत्यादि प्रभृति गण धातु समूह हैं।
गण शब्द की व्याख्या–गण शब्द रुद्र के अनुचरों के लिए भी प्रयोग होता है जिसका साक्ष्य हमें रामायण में प्राप्त है–
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लोगों की राय
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